Monday, November 6, 2017

बुनियादी सुविधाओ से वंचित गांव दद्दा का पुरा , , , ,



बुनियादी सुविधाओ से वंचित गांव दद्दा का पुरा , , , ,
इलाहाबाद जिले का शंकरगढ ब्लाक सबसे पिछ्डा विकास खंड के रूप मे जाना जाता है. इसी विकासखंड की कोहडिया ग्राम पंचायत का एक गाव दद्दा का पुरा है जो मुख्य गाव से लगभग 1.5 किलोमीटर बाहर बसा है. यहा सामाजिक संस्था “ एजुकेशन रिसोर्स सोसाइटी ” जब यहा बच्चो के अधिकारो पर काम करना शुरु किया तो पाया कि यहा के नागरिक व बच्चे बहुत ही निरीह स्थिति मे जीवन जी रहे है इस बसाहट का इतिहास पता करने के लिये यहा के सबसे बयोवृद्ध 65 वर्षीय राम कृपाल कोल से बातचीत किया उन्होने बताया कि लगभग 40-45 वर्ष पूर्व वे अपनी युवा अवस्था मे ग्राम मझियारी से यहाँ काम के लिये आये थे. उस समय पत्थर खदानो मे अवैध रूप से बेरोक-टोक काम चलता था. यही पत्थर खनन का काम करते और झोपाडिया डाल कर रह्ने लगे. जैसे-जैसे खनन का काम तेज हुआ रिश्तेदारो और जान-पह्चान के लोगो को आना बढता गया और धीरे-धीरे झोपडियो की झुंड बस्ती मे तब्दील गयी. बस्ती बसने से किसानो और ठेकेदारो को भी कोई आपत्ति नही थी क्यो कि भुखमरी और बेबसी का दंश झेल रहे मजदूरो से कडी मेह्नत के एवज मे औने-पौने दाम ही देने पडते थे. कृपाल कोल बताते है कि उन्हे इस बात का इल्म तो था कि श्रम का उचित मूल्य नही है पर दबंगई का खौफ और काम से निकाले जाने के डर से चुप्पी साध लेते. नब्बे के दशक मे जब सामजिक संस्थाओ ने शंकरगढ मे मजदूरो के कल्याण एवम अधिकार के मुहिम की शुरुवात हुयी तो यहाँ के मजदूर भी शामिल हुये. एक बैठक मे इस बात पर गहन चर्चा का विषय रहा कि गाव का नाम क्या रखा जाये? काफी चर्चा के बाद दादा राम किशुन के नाम पर दद्दा का पुरा नाम पर सर्व सम्मति से मुहर लगी. जिसकी लिखा-पढी करके उपजिलधिकारी समेत उत्तर प्रदेश शासन तक भेजा गया जिससे कि अधिकारिक रूप से राजस्व गाव घोषित हो सके. जो अब तक सम्भव नही हो सका.
सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक रूप से पिछ्डे दद्दा का पुरा का गाव बेशक विकास की धारा से वंचित रहा है परन्तु राजनैतिक भागीदारी हेतु विभिन्न दलो ने वोट का अधिकार जरूर दिला दिया. जिसका असर सिर्फ चुनावी बिगुल फुकने से लेकर सत्ता पर आसीन होने तक दिखता है उसके बाद न कोई पलट कर देखता है और ना ही विकास की गंगा की कोई लहर दिखाई देती है और उम्मीदो का दीपक फिर से बुझता नजर आते ही सब फिर से रोजी-रोटी के जुगत मे लग जाते है. यहाँ के लोगो की जीविका श्रम पर आधारित है अभी तक तो पत्थर खनन मे पुरुष एवम महिला दोनो बराबरी से काम करते रहे और अपना व अपने बच्चो के पेट के लिये दो वक्त के भोजन का जुगाड करते लेते. इसके अलावा और कोई उपाय ना था. वर्षो खदानो मे काम करने के बाद यहा के खनिया मजदूरो को श्रम विभाग या अन्य किसी द्वारा ना तो अधिकारिक तौर मजदूर का दर्जा दिया और ना ही किसी को श्रम मंत्रालय से कोई लाभ मिला. और अब तो माननीय उच्च न्यायालय द्वारा पत्थर खनन पर रोक लगने के बाद मजदूरो की रोजी भी गयी. जिससे यहाँ के लोगो का शहरो की तरफ पलायन भी तेज हुआ इसका प्रभाव भी बच्चो पर प्रतिकूल ही पडा.  इसी गाव के निवासी राजधर कोल बताते है कि इंदिरा जी के जमाने मे 15-20 लोगो को 1-1 बीघे का खेती हेतु पट्टा दिया गया था जो पटेलो के कब्जे मे है बहुत प्रयास के बाद भी जमीने कोलो के हाथ मे नही आ सकी जिसका एक प्रमुख कारण यह रहा कि कोलो की एकता को दबंगो ने जमींदोह कर दिया इस नेक काम मे प्रशासन भी समय-समय पर दबंगो के साथ खडा हुआ उक्त बातो को कहते-कहते राजधर बहुत दुखी हो जाते है.
दद्दा का पुरा मे बुनियादी सुविधाओ का पूर्णरूप से आभाव दिखाई देता है. शैक्षिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो इस गाव की ग्राम पंचायत कोहडिया मे प्राथमिक स्तर से लेकर 8वी तक का सरकारी स्कूल स्थपित किया गया है जो यहा से तकरीबन 1.5 किलोमीटर से अधिक दूरी पर अवस्थित है. जहा प्राथमिक स्तर के बच्चो का पहुचना कठिन है दूसरी ओर ग्राम पंचायत पंडित के पुरा मे प्राथमिक स्कूल है जिसकी दूरी 1 किलोमीटर पर है परन्तु जाने वाले रास्ते पर खुदी हुई खदाने बच्चो के लिये जोखिम भरी है 80 परिवारो के इस दलित पुरवे मे 6-14 आयुवर्ग के लगभग 99 बच्चे है जिसमे से लगभग मात्र 45 बच्चे विभिन्न स्कूलो मे नामांकित है जिसमे से भी नियमित स्कूल जाने वाले बच्चो की संख्या दहाई नही पार कर पाते. शेष 54 बच्चे स्कूल से बाहर है. उत्तर प्रदेश मे शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए भले ही एक पंचवर्षीय से अधिक हो गया हो. परंतु यहाँ के बच्चो के लिये यह कानून बेमानी साबित हो रहा है जो बच्चो के अधिकारो का सीधा हनन का मामला बनता है. शायद यही कारण है कि इस गाव मे अब तक 9वी कक्षा तक सालू और 10वी कक्षा तक सिर्फ राजधर ही पढ पाये है स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त एक भी आदमी नही मिलेगा. यहा के बच्चे अधिकतर पह्ली पीढी के पढने वाले बच्चे है. इसी तरह 3-6 वर्ष के कुल 38 बच्चे है परन्तु यहाँ अब तक कोई आगनवाडी केंद्र नही स्थापित किया गया है. जिसके कारण ना तो बच्चो को पूर्व प्राथमिक शिक्षा की कोई व्यावस्था हो पा रही है और ना ही गर्भवती/धात्री माताओ व किशोरियो को महिला एवम बाल विकास विभाग की कोई सेवाए मिल पा रही है. यही नही बुनियादी सुविधाओ के नाम पर सरकार द्वारा सिर्फ 3 हैंड पम्प इस गांव मे लगाये गये है जो फरवरी माह के आते ही पानी देना बंद कर देते है या घंटे भर इंतजार के बाद 1/2 बाल्टी ही पानी दे पाते है और गर्मी के दिनो मे लोगो की दिनचर्या पानी की व्यवस्था पर अटक जाती है. तथा यह समस्या बरसात आने के बाद ही सुधरती है. इन दिनो मे सरकार की तरफ से इस मामले मे कुछ भी नही हो पाता. यहा का पेयजल स्वस्थ्य की दृष्टि बिल्कुल ठीक नही है. पानी हैंड्पम्प से निकलने के बाद घंटे भर मे अजीब सा लाल रंग ले लेता है. जानकारो के अनुसार पानी अर्शेनिक, आयरन की अधिकता एवम फ्लोराइड युक्त है जो लोगो एवम बच्चो को गम्भीर बीमारी की चपेट मे ले लेता है. इसके अलावा इस गाव मे लेपित सम्पर्क मार्ग, बिजली आदि की व्यवस्था आज तक नही हो पाई.      
भारतीय संविधान मे नागरिको के मौलिक अधिकारो को रखा गया है जिसके तहत मानव के मूल आवश्यकताओ, सम्मानपूर्ण जीवन जींने का अधिकार सुनिशिचित करना राज्य की जिम्मेदारी है. परन्तु यहा की स्थिति देखने पर दुखद लगता है और सरकारी कार्य प्रणाली पर दर्जनो प्रश्न चिन्ह लग जाते है. आज जरूरत इस बात की है कि हमारी कार्यपालिका, न्याय पलिका व व्यावस्थपिका व अन्य तंत्र इस गाव भ्रमण करे और वास्तविक्ता से रूबरू होने के साथ-साथ नागरिक व बाल अधिकारो को स्थापित करने हेतु उचित कदम उठाये.